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07:30, 30 जनवरी 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
हवाओं पर सवार
रुई के फाहों की तरह
उड़ते बादल के ये सफेद टुकड़े
कभी जब
मेरी छत के ऊपर से गुजरते हैं
मुझे उनमें पुरखों की
स्वप्निल छवियां नजर आती हैं
उनके लंबे सफेद बाल
और दाढ़ियां
चेहरों पर पड़ी झुर्रियों के भीतर से झांकती
बड़ी बड़ी आंखें
मेरी खिडकियों पर ठहर जाना चाहती हैं
इसलिए बादल के ये सफेद टुकड़े
सिर्फ बादल नहीं हो सकते
वे मेरी छतों पर बरसना चाहते हैं
आकार लेना चाहते हैं
मेरी खिडकियों के शीशों पर
वे शब्द देना चाहते हैं
हमारी बर्फ जमी चुप्पियों सन्नाटों को
सृजन और पुनर्जीवन का
सुखद स्पर्श देना चाहते हैं
हमारे अंतस के सूख गए सोतों को
वे पूरा करना चाहते हैं
अधूरे छूट गए हमारे स्वप्नों को
ख़्वाबों की सफेद टोकरियों से
भर देना चाहते हैं
हमारे घर के उदास अंधेरे कोनों को
वे अपने घर की एक-एक ईंट से
यहां सदियों पहले बीती स्याह सफेद
सुबहों और रातों से
तमाम उन अनाम गलियों-पगडंडियों से
एक बार फिर से गुजरना चाहते हैं
जो कभी उनकी रहगुजर थीं
वे दुःख और उदासियों की तलाश में
अकसर धरती पर उतरते हैं
अपनी झोली में भर कर
ले जाना चाहते हैं
यहां की मिट्टी के रंग रस गंध
कि धरती की उदासियों के बिना
बहुत अधूरी है आसमान की रंगत भी
पूर्णता की तलाश में
वे हर बार
धरती पर ही उतरते हैं...