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09:11, 30 जनवरी 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
खंडहर इस किले की
अंधेरी मेहराबों पर
नींद में चलती हुई
वो जहां-जहां
चांदनी से टकराई है
वहां-वहां
ओस-सी नन्हीं चिंदियां
हल्की हवाओं के स्पर्श से
पारे-सी लरज जाती हैं...
वो कहते हैं
कि मेहराबें जगह-जगह
ओस से गीली हैं...
मैं कहता हूं
वो कल रात
इन्हीं मेहराबों पर
नींद में चलती हुई
किसी के कंधे पर
सिर रख कर रोई थी...
अब किस-किस को
कैसे बताऊं
कि उसके आंसुओं से
मेरा कंधा अभी भी गीला है...