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{{KKRachna
|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
|संग्रह=एक चन्द्रबिम्ब ठहरा हुआ / गुलाब खंडेलवाल
}}
[[category: कविता]]
<poem>

वैराग्य के सभी सूत्र मैंने घोट डाले
फिर भी मन की यह मीठी पीर नहीं जाती है.
गंगा की धारा में अगणित गोते लगा लिए,
पर प्राणों की जलन बुझ नहीं पाती है.
हीरे को ज्यों-ज्यों छीलता हूँ,
उस पर और भी चमक चढ़ती जाती है,
मिसरी को जितना ही धोता हूँ
मधुरता उतनी ही बढ़ती जाती है.
नाव तो कहाँ से कहाँ चली आयी
पर नाविक अभी तीर पर ठहरा है
ज्यों-ज्यों भुजायें शिथिल हुई जाती हैं
लगता है, सागर अधिकाधिक गहरा है

<poem>
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