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|रचनाकार=नरेश मेहन
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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
जूण री
आंधी भागा-दौड़ी
घरू अनै बेगारू
गोरखधंधा में
उळझ्योड़ा ताणां-पेटा में
अळूझ-अळूझ
कद धोळा होग्या
सिर रा केस
आंख्यां रा भांपड़
ठाह ई नीं पड़ी
कड़ अर गोडां री
कद नीवड़गी गरीस
पण म्हारै भीतरलो टाबर
इण सूं
जाबक बेखबर रैयो।

भीतरलो टाबर तो
हरमेस तड़फड़ावंतो रैयो
बाअंडै आवण नै
अर एक दिन तो
हद ई होयगी
बो बाअंडै आ ई गियो

उमर रै छांनै
आधी सी रात नै
अनै ढूकग्यो
धोरां माथै
बास रा टाबरां साथै
खेलण हरदड़ो।

उण दिन
टाबरां नै भोत सरम आई
बां आपस में सेन करी
बूढ़ियै री अक्कल
देखो भांग खाई है
इण रै मन में
आ कांई आई है।

टाबरां री बात सुण
म्हारै बाअंडै रै बूढ़ियै
भीतरलै टाबर नै
गोदी ले लियो।
</poem>
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