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{{KKRachna
|रचनाकार=नरेश मेहन
|अनुवादक=
|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
}}
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<poem>
म्हैं
घर सूं निकळतां
हरमेस
आपरो सिर
धड़ सूं कर न्यारो
हथाळयां धर टुरूं।

ठाह नीं कद
बसड़ा-टरकड़ा
का फेर
किणी अमीर-औळाद री
कार तळै दब‘र
मर नीं जाऊं।

ठाह नीं कद
किणी अपघाती-आतंकवादी रै
बम्ब गोळां रो
सिकार हो जाऊं।

इणीज खातर म्हैं
आपरो सिर
टाळ’र राखूं।

घर बावड़ूं जद ई
सिर साम्भूं
घर में बड़ परो
आपरो सिर
धड़ माथै धरूं
अनै गिणूं
घर रा सगळा सिर
नीं जाणै किणीं रो सिर
किणीं री हथाळी माथै
नीं रै’ग्यो होवै।
</poem>
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