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रंगमहल / पृथ्वी परिहार

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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
इण सईकै रै दसवैं बरस में
आठवैं मईनै री दो तारीख री उण सिंझ्या
सेम सूं बंजर होयोड़ी जमीन माथै ऊगी
बिलायती कींकरा रै मांखर बगतां
ठाह पड़ी
रंगमहल रा जोगी ‘बीण-बान्ना’ छोड
करण लागग्या लुगायां री दलाली
म्हनै लाग्यो
मणां माटी नीचै दबगी संस्कारां री विरासत

म्हे दोन्यूं आगै बध्या
बठै, जठै पाणीं री एक नदी
मिलती ही रेत रै समंदर सूं
सईकां पैली जठै ही एक बस्ती
खिलता हा पुहुप अर तिरता हा कीं गीत।

... तो सा, उण सिंझ्या म्हे बात करी
कविता छोड़ग्या भायला
अनै पद्य रै नांव माथै
कहाणीं करै कीं लोगां री
षिव बटालवी री कवितावां मैं
ऊगगी कंटाळी-थोर
अमृता प्रीतम रै लेखण में टीसती पीड़
लुकछिप पण लिखीज रैया है कीं आच्छा गीत।

म्हारी बातां में हाज़र हा
शमषेर, निराला, मुंषी प्रेमचन्द
मीरा, बुल्लेषाह, वाल्तेयर कामू
अर अस्सी रा काषी री
गाळगळोज भरी परसतावना
अज्ञेय रै कबीर कबीर नीं होवण री हद
काफ्का रा निबंध
सो रिपियां में दस किताबां री
मायावी योजना
ब्लॉग री बधती मैमा-महता
फेसबुक माथै क्रिएटिविटी
बावळी हरकतां अर बगत री बरबादी माथै भी
होय ई गई ही कीं बातां-कीं टिपण्यां।

इयां ई जळवायु बदळाव
रंग बदळती रुत
आपरै समाजू दरखत सूं
लमूटती अमरबेल
नाता-गनां माथै जमती काळी बरफ
तूफानां में साथै चालण आंवता
घोचां-फूसकां री घटनावां
छेपक री भांत
अळूझगी ही म्हारी बातचीज में।

उण ढळती सिंझ्या
दिखणादै-आगूण बीजळी पळकी
अेक गुवाळियो अर गडरियो घरां बावड़ै हा
कीं भेड-बकरयां-गावड्यां साथै
म्हे बड़ोपळ गांव रै बारै
अेक कोठै रै साम्हीं सड़क माथै ऊभ्या हा
जिण माथै ‘यहां ठंडी बियर मिलती है’ लिख्योड़ो हो
उण बगत
मोवणों मौसम, चौगड़दे सुनियाड़
सगळो कीं हो म्हारै खन्नै
बस थोड़ा सा भुजियां नै टाळ’र।

(रंगमहल: अठै खुदाई में पराचीन सभ्यता रा ऐनाण मिल्या है)

</poem>
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