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14:15, 18 जून 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आनंद कुमार द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=जरिबो पावक मांहि / आनंद कुमार द्विवेदी
}}
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<poem>
बदले तो हैं वो
इन दिनों रखते हैं ख़ास ख़याल
जैसे कोई अनुभवी चिकत्सक पकड़ता है
हौले से मरीज़ की नब्ज़
पल भर में भांप लेता है उसका स्वास्थ्य
आश्वस्त हो पूछता है हालचाल
देता है जरुरी हिदायतें
और चला जाता है उधर ही जिधर से आया था
मरीज़ फिर करने लगता है इंतज़ार
एक और कल का
प्रेम ...
इंतज़ार की आंच पर पक रही
अनेक काल्पनिक स्वादों वाली
बीरबल की खिचड़ी है !
</poem>
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