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06:35, 25 जून 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजेन्द्र शर्मा 'मुसाफिर'
|अनुवादक=
|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
कैवत है-
गिणती कर‘र
भरै सांस
मिनख अर जिनावरां मांय
वौ करतार!
कठै है करतार ?
इण रौ पडूत्तर
किणीज नीं दीन्यौ
अर सगळाइज दीन्यौ वै
जका ढोंवता रैया
आंखमींच ऊथळां नैं ...
करै अजै तांई
कूड़ ढोवणी।
अबै सांम्ही है
पुख्ता सांच
कै मिनखां ई बसै
बिरमा
विसणु
महेस!
वै रचै-घड़ै
मिनख अर जिनावर
विग्यान रै स्हारै
मनचावा क्लोन।
वै सिंघासणां माथै पसर्या
मुळकता बांटै रेवड़ी
भरै मनचावा पेट।
वै कदेई खोल सकै
अपरबळ रै गुमेज सूं
अेकै धमीड़ साथै
तीजी आंख।
न्हाखद्यौ परै
अणतोली ढोवणी
पतियारौ कर्यां ई
खुलसी आंख्यां।
</poem>
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