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मान / कुंजन आचार्य

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|संग्रह=थार-सप्तक-4 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
धन सूं मोटो मान घणो
मान मले थां अस्यो बणो
मान बढ़ावै इण धरती रो
माई अस्या पूत जणो।

मान पागड़, मान मूंछड़ो
मान थारी जय होएगी।

राजस्थानी रीत प्रीत री
प्रीत मान री भाईली।
मान बढै तो प्रीत बढै है
दोन्यूं एक री जाईली।

मान जीत है, मान गीत है
मान थारी जय होएगी।

मंगरा-मंगरा घणा छड्या पण
पगड़ी जंडी परी उड़ी।
धन ही जोड़यो मान थे छोड़यो
अस्या मनख पे धुलो धड़ी।

मान धजा है, मान प्रजा है
मान थारी जय होएगी।

</poem>
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