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भोत अंधारो है.. / ओम पुरोहित ‘कागद’
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09:03, 28 जून 2017
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<poem>
होया करै जेड़ो
है दिन
चोगड़दै पण भंवै
साव अंधारो
सुरजी नै चिड़ांवतो!
कुण देखै सूई
जठै लुकग्या हाथ
दिखै ई नीं
खुद रै पगां रो कादो
भोत अंधारो है
थकां सुरजी!
है तो सरी सुरजी
आभै में पकायत
है कठै पण ठाह नीं
फिरग्या आडा
जळबायरा बादळिया!
इयां तो ढबै नीं सुरजी
निकळसी एक दिन
बादळियां नै फटकार
पळपळांवतो
आभै रै सूंवै बिचाळै!
</poem>
आशिष पुरोहित
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