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टाबर - 13 / दीनदयाल शर्मा

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|संग्रह=रीत अर प्रीत / दीनदयाल शर्मा
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<poem>
टाबर नै
आपां
टाबर समझ'र
क्यूं करद्यां अणसुणौ

टाबर रै मन में
नां मैल
नां भेदभाव
नां जातपांत
नां छुआछूत
अर
नां कोई
बणावटीपणौ

म्हूं सांची कैवूं
कै टाबर
सांचा हुवै

अेकर
टाबर री भी सुणौ
भलांईं
नां मान्या
टाबरां री

पण
सुणण में
कांईं है हरज
अेकर तो सुणौ
टाबर नै
खाली
टाबर ना समझ्या
औ दरपण है
घर रौ

अर
आ तो थे भी जाणौ
कै दरपण
कदी नीं बोलै झूठ ।

</poem>
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