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जळसै पछै / मदन गोपाल लढ़ा

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|संग्रह=चीकणा दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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<poem>
अेक माथै अेक
भेळी कर्योड़ी कुरस्यां
ढिगळी कर्योड़ा पड़दां रै ओळै-दोळै
न्हाख्योड़ा टैंट रा पाइप।

चौगड़दै खिंड्योड़ी प्लास्टिक री गिलासां
कागद री प्लेटां देख्यां
इयां लखावै-
जियां रात अठै जीमणवार नीं
कोई जुध मंड्यो हुवै
पण जमीं माथै
जठै-कठै ई
जाम सूं छळक'र
पड़्योड़ै छांटां सूं
ओळखणो अबखो है
विलायती दारू रो ब्राण्ड।

मेट माथै खिंड्योड़ै
मिठाई अर नमकीन रै भोरां सूं
सावळ ठाह नीं लागै
जीमणवार रै मीनू रो
पण खाली-अधभरी
कागदी-प्याल्यां
आईसक्रीम री हाजरी अवस मांडै।

गाभा, डियोड्रेंट, परफ्यूम, होठा-लाली
अर पोडर सागै
दारू री बांस
अेकमेक हुयगी
जिणरी भभक
पसर्योड़ी हैै च्यारूंमेर।

छांय-मांय हुग्यो
रात आळो सारो रोळो-रप्पो
डीजे मून
ठहाका गायब,
इण सूनेड़ नैं भांगता
फगत अेक-दो गंडक फिरै
जूठण में मूंडो मारता
अर दो-चार टाबर
बोतलां-मेणियां टाळता।
</poem>
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