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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
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<poem>
हमें बेटा नहीं बनिये की पूँजी मानता है वो
हमारी हर तरक्की में मुनाफ़ा माँगता है वो।

पिता है वो, कोई भगवान वो थेाड़े ही मेरा है
मुझे अपने इशारों पर नचाना चाहता है वो।

कभी सोचा भी है उसने समझदारी से घर चलता
मुझे आदेश के चाबुक से अपने हाँकता है वो।

हमें रिश्तों की परिभाषा बताने वो चला बेशक़
मगर रिश्तों का क्यान मतलब है खुद भी जानता है वो।

बताते लोग हैं वो सन्तुलन भी खो चुका अपना
कि इस घनघोर कलजुग में भी ‘ सरवन ‘ ढूँढता है वो।

अभी बच्चा है तो उसकी नज़र से देखिये उसको
क़िताबें दीजिए, लेकिन खिलौना चाहता है वो।
</poem>
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