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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
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<poem>
तमाशाई बने रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।
किसी मजबूर पर हँसना मुझे अच्छा नहीं लगता।

मेरे बच्चे नहीं हैं मानते बातें मेरी वरना,
तुम्हारे शहर में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।

मैं भूखा ठीक है रह लूँ मुझे मंजूर है लेकिन,
गुलामों की तरह रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।

जमीं पर पाँव हैं मेरे टिके मेरे लिए काफी,
हवा के ज़ोर से उड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता।

ज़रा सा भी किसी के काम आ जाऊँ तो अच्छा है,
मगर बातें बड़ी करना मुझे अच्छा नहीं लगता।

बढ़ो ऐसे कि जैसे चाँदनी बढ़ती चली जाये,
किसी को काटकर बढ़ना मुझे अच्छा नहीं लगता।
</poem>
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