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किसी दरख़्त ने चलकर कभी नहीं देखा।
वो है सूरज उसे तपने का तजु़र्बा केवल,
ज़मीं की आग में जलकर कभी नहीं देखा।
पेट भरने के सिवा ज़िंदगी के क्या माने,
किसी ग़रीब ने जीकर कभी नहीं देखा।
नेकियाँ करके भुला दें यही अच्छा होगा,
किसी नदी ने पलटकर कभी नहीं देखा।
 
फूल क्या अब एक भी पत्ता नहीं है डाल पर,
पेड़ है फिर भी खड़ा मधुमास के अरमान में।
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