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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=उजाले का सफर / डी. एम. मिश्र
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<poem>
हमें ताने बहुत मारे हमारे पाँव की ठोकर।
कहाँ हो आ गये भाई यहाँ तो सिर्फ़ हैं पत्थर।

शहर की सब अमीरी दीखती इन पत्थरों में ही,
किसी भूखे को दो रोटी नहीं मिलती किसी के घर।

घरों में फिर यहाँ क्यों लोग अपने खिड़कियाँ रखते,
यहाँ परदा पड़ा रहता हवा आती नहीं अन्दर।

वो ड्राइंग रूम के गमले मज़ा बारिश का क्या जानें,
भले हम जंगली पौधे, मेहरबाँ है प्रकृति हम पर।

हमारे पास जो पूँजी थी हम वह भी लुटा बैठे,
यही है फिक्र वापस गाँव लौटें कौन मुँह लेकर।
</poem>
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