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सरेराह नंगा वो हो चुका उसके लिए कुछ भी नहीं।नहीं
लोगों की नज़रों में वो गिरा उसके लिए कुछ भी नहीं।
फुटपाथ पे थे ग़रीब सोये, कार में वो अमीर था,
वेा कुचल के उनको निकल गया उसके लिए कुछ भी नहीं।
इन्सान कैसे कहूँ उसे अन्याय देख के मौन जो,
इन्सानियत का गला कटा उसके लिए कुछ भी नहीं।
ज़रा उस अमीर को देखिये कितने मजे से वो खा रहा,
वहीं भूख से कोई मर रहा उसके लिए कुछ भी नहीं।
ये विधायकों का निवास है ‘दारूलशफ़ा’ या हरम कोई,
जनतंत्र कोठा है बन गया उसके लिए कुछ भी नहीं।
दस फ़ीसदी यहाँ बदज़ुबाँ, नब्बे हैं गूँगे या बे-जु़बाँ,
दुर्भाग्य है इस देश का उसके लिए कुछ भी नहीं।
</poem>
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