{{KKCatGhazal}}
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गुलाबों की नई क़िस्मों से वो खु़शबू नहीं आती।आती
बहुत बदला ज़माना वो कबूतर अब न वो पाती।
बढ़ी है रोशनी इसमें तो कोई शक नहीं लेकिन,
जिसे हम पूजते थे अब न वो दीया,न वो बाती।
ज़माने की हवा घर को हमारे छू नहीं सकती,
बड़े दावे से कहते थे कभी हम ठोंक कर छाती।
महीने भर का बच्चा माँ की ममता को तरसता है,
मगर माँ क्या करे दफ़्तर से जब छुट्टी नहीं पाती।
सुना है आदमी की बादलों पर भी हुकूमत है,
मगर गर्र्मी में गौरैया कहीं पानी नहीं पाती।
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