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इज़्ज़तपुरम्-57 / डी. एम. मिश्र

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<poem>
एक काँटा भी
ठीक से था
जमा नहीं
पसली में

कमजोर मछली
जाल में आ फँसी
और हो गयी मंडी की

फिर कौन देखे
देह की भूख
और तृष्णा के सम्मुख
मन के भीतर
रचे-पगे उसके
महके संसार को

शिकारी को
कुल दिखे
एक जून का गोश्त
</poem>
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