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|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
}}
'''केनी जी के सैक्सोफ़ोन के लिए
3इलाही! है आस या तलास (केनी जी के सैक्सोफोन के लिए)-------------------------------------------
जिन्हें पकड़नी है पहली लोकल
 
वे घरों के भीतर खोज रहे हैं बटुआ
 
जुराबे और तस्मे
 
बाक़ी अपनी नींद के सबसे गाढ़े अम्ल में
 
कोई है जो बाहर
 
प्रेमकथाओं की तरह नाज़ुक घंटी की आवाज़ पर
 
बुदबुदाए जा रहा है राम जय-जय राम
 
जैसे सड़क पर कोई मश्क से छिड़क रहा हो पानी
 
जब बैठने की जगहें बदल गई हों
 
पियानो पर पड़ते हैं क्रूर हाथ और धुनों का शोर खदेड़ दे
 
बाक़ी तमाम साजिंदों को
 
जिन पत्थरों पर दुलार से लिखा राम ने नाम
 
उनसे फोड़ दूसरों के सिर
उन्मत्त हो जाएं कपिगण
जब फूल सुंघाकर कर दिया जाए बेहोश
और प्रार्थनाएं गाई जाएं सप्तक पर
यह कौन है जो सबसे गहराई से निकलने वाले
`सा´ पर टिका है
पौ फटने के पहले अंधकार मेंजब कंठ के स्वर और चप्पलों की आवाज़ भीपवित्रता से भर जाते हैंमकानों के बीच गलियों में कौन ढूंढ़ रहा है राम कोजिसकी गुमशुदगी का कोई पोस्टर नहीं दीवार परअख़बार में विज्ञापन नहींटीवी पर कोई सूचना नहीं....................................................................... उन्मत्त हो जाएँ कपिगण
जब फूल सुंघाकर कर दिया जाए बेहोश
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}}और प्रार्थनाएं गाई जाएँ सप्तक पर
यह कौन है जो सबसे गहराई से निकलने वाले
4कोई बेनाम-सा (उस लड़के के लिए जिसकी पहली गेंद `सा´ पर मैं बोल्ड हो जाता था)-------------------------------------------------------------------------------कुछ चेहरे होते हैं जिनके नाम नहीं होतेकुछ नामों के चेहरे नहीं होतेजैसे दो अलग-अलग लोग जन्मते हैं एक ही व$क्तअलग-अलग दो ट्रेनें पहुंचती हैं स्टेशनदो दुनियाओं में होता टिका है कोई एक ही समय
एक चेहरा और एक नाम उभर आते हैं
पूछते हुए पहचाना क्या
वह शख़्स आता है कुछ वैसी ही रफ़्तार सेगुज़रता है मेरे पार ठंडे इस्पात की तरहफुसफुसाता है अपना नामपौ फटने के पहले अंधकार में
क्या यही था उसका नामजो मुझे याद आ रहा हैक्या यही था उसका चेहराकहीं वैसा मामला तो नहीं कि मतदाता पहचान-पत्र पर चेहरा जब कंठ के स्वर और कानाम किसी और काचप्पलों की आवाज़ भी
मैं उसके नाम लिखूं अपना दुलारजिसका वह नाम ही न होउसके चेहरे को छुऊं और उसका चेहरा ही न हो वहपवित्रता से भर जाते हैं
हम किसका नाम ओढ़कर जाते हैं लोगों की स्मृतियों मकानों के बीच गलियों मेंकोई हमें किसके चेहरे से पहचानता हैगाली देना चाहता है तो क्याहमें, हमारे ही नाम से याद करता हैजिस चेहरे को धिक्कारता हैवह हमारे चेहरे तक पहुंचती है सही-सलामत
मेरी याद रिहाइश कौन ढूंढ़ रहा है ऐसे बेशुमार कीजिनके नाम नहीं हैं चेहरे भी नहींपरछाइयों की क़ीमत इसी वक़्त पता पड़ती है............................................................................ राम को
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}}जिसकी गुमशुदगी का कोई पोस्टर नहीं दीवार पर
अख़बार में विज्ञापन नहीं
5सभ्‍यता के खड़ंजे पर (बॉब डिलन के गीतों के लिए)---------------------------------------------------- और उस आदमी को तो मैं बिल्कुल नहीं जानताजो सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ हाथों में कड़ों की पूरी बटालियनआठ उंगलियों में सोलह अंगूठीगले में लोहे की बीस मालाएंऔर हथेली में फंसाए एक हथौड़ीकभी भी कहीं भी नज़र आ जाता था जिसे देख भय से भौंकते थे कुत्तेलोगों के पास सुई नहीं होती थीसिलने के लिए अपनी फटी हुई आंखजो पागलपन के तमाम लक्षणों के बाद भी पागल नहीं थाजो मुस्करा कर बच्चों के बीच बांटता था बिस्कुटबूढ़ी महिलाओं के हाथ से ले लेता था सामानऔर घर तक पहुंचा देता थाऔर इस भलमनसाहत के बावजूद उनमें एक डर छोड़ आता था वह कितना भला थाइसके ज़्यादा किस्से नहीं मिलतेवह कितना बुरा थाइसका कोई किस्सा नहीं मिलताजबकि वह हर सड़क पर मिल जाता था  वह कौन-सा ग्रह था जो उसकी ओर पीठ किए लटका था अनंत में जिसे मनाने के लिए किया उसने इतना सिंगारवह कौन-सी दीवार में गाड़ना चाहता था कीलपृथ्वी के किस हिस्से की करनी थी मरम्मतकिन दरवाज़ों को तोड़ डालना थाजो हर वक़्त हाथ में हथौड़ी थामे चलता था जिसके घर का किसी को नहीं था पतापरिवार नाते-रिश्तेदार काजिसकी लाश आठ घंटे तक पड़ी रही चौक पर रात उसी हथौड़ी से फोड़ा गया उसका सिरजो हर वक़्त रहती थी उसके हाथ में जो अपनी ही ख़ामोशी से उठता है हर बारकपड़े झाड़कर फिर चल देता है उसके तलवों में चुभता है इतिहास का कांटाउसके ख़ून में दिखती है खो चुकी एक नदीउसकी आंखों में आया हैअपनी मर्जी से आने वाली बारिश का पानीउसके कंधे पर लदा है कभी न दिखने वाला बोझउसके लोहे में पिटे होने का आकारउसके पग्गड़ के नीचे है सोचने वाला दिमाग़सोच-सोचकर दुखी होने वाला वह कब से चल रहा हैचलता ही जा रहा हैसभ्‍यता के इस खड़ंजे पर उसे करना होगा कितना लंबा सफ़र यह जताने के लिए कि वह मनुष्य ही हैटी.वी...................................................................  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}}  6बोलते जाओ (उस आदमी के लिए जो अपनी क़ब्र में जि़ंदा है) --------------------------------------------------------------तुम्हें विधायक का सम्मान करना थाजिसके लिए ज़रूरी था झुकनातुम्हें हाथ पीछे बांध लेने थे और बताना थाइज़्ज़तदार हंसी उतनी ही खुलती हैजितने में खुल न जाए इज़्ज़त का नाड़ा जब रात के तीसरे पहर खटका होगा तुम्हारा दरवाज़ातब भी तुम्हारे मन में खटका नहीं हुआ होगाये चार मुश्टंडे तभी निकलते थे बंगले के बाहरजब काम सफारी सूट वालों के हाथ से निकल जाता था बताओ मुझे मैं सुन रहा हूंयह तुम्हारी पीठ का दर्द थाया कमर की अकड़जो तुम्हें झुकने में इतनी दिक़्क़त होती थीसुन रहा हूं तुम्हें जो तुम कह रहे हो- क्या आपको नहीं लगताहाथों को कुछ और लंबा होना चाहिए थाइनके छोटे होने के कारणझुकना पड़ता है हर बारपूंछ को ग़ायब नहीं होना थाजब उसके हिलने का वक़्त होता हैफुरफुरी-सी होने लगती है उसकी जगह पर कितना नाराज़ हुआ था विधायकविधायक हमेशा नाराज़ क्यों रहता है हमसे वह तुमसे मांग रहा था ज़मीनजबकि तुम कुछ पूछना चाहते थेतुमने कहा-जब मेरी लंबाई सवा फीट थीतो साढ़े छह वर्ग फीट ज़मीन थी मेरे लिएमैं पांच फुट छह इंच का हूं आजऔर ज़मीन सिकुड़कर तीन फीट बची है तुम क्यों नहीं रोए एक बार भीजबकि तुम्हारे भीतर रो रही थी तीन फीट ज़मीनया हो सकता है रोए होगे तुम अपने ही भीतरजैसे रोया करती है ज़मीन तुम क़दम-क़दम पर खीझते थेचाहते थे कि तुम्हारे घर तक आए पानीसूखा न रहे बाथरूम का नलसिर्फ़ जन्मदिन पर ख़रीदनी पड़े मोमबत्तीढाई सौ लीटर की टंकी में आए ढाई सौ लीटर पानीपर टंकी बनाने में खो ही जाते हैं बीस-पच्चीस लीटरअक्सर नहीं आता पानीगुल रहती है बिजली वहां अभी तक एक पुल का काम चल रहा हैऔर मशीनों के अग़ल-बग़ल से लोग निकाल लेते हैं गाडि़यांवहां पचासों इमारतें बन रही हैंजिनमें लोन देने से मना कर देगी एलआईसीवहां कितनी सड़कों पर गड्ढे हैंये सब कितनी बड़ी चिंताएं हैंबजाए चिंतित होना कि कोई रिसॉर्ट नहीं इस शहर में ढंग का विधायक कितना हुआ नाराज़वह हमेशा नाराज़ क्यों रहता है हमसे तुम चिंता मत करोमैं सुन रहा हूंवह तुम्हारी ज़मीन ख़रीदना चाहता थातुम पर क़ब्ज़ा करना चाहता थाबोलते जाओमैं सुन रहा हूंतुम्हारी आवाज़ आ रही है उस ज़मीन के नीचे सेजहां तुम भटक रहे होऔर बार-बार कह रहे होतुम्हें अपनी ज़मीन नहीं देनी..........................................................................    {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}} 7मदर इंडिया (उन दो औरतों के लिए जिन्होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था)---------------------------------------------------------------------------------- दरवाज़ा खोलते ही झुलस जाएं आप शर्म की गर्मास से खड़े-खड़े ही गड़ जाएं महीतल, उससे भी नीचे रसातल तक फोड़ लें अपनी आंखें निकाल फेंके उस नालायक़ दृष्टि को जो बेहयाई के नक्‍की अंधकार में उलझ-उलझ जाती है या चुपचाप भीतर से ले आई जाए कबाट के किसी कोने में फंसी इसी दिन का इंतज़ार करती किसी पुरानी साबुत साड़ी को जिसे भाभी बहन मां या पत्नी ने पहनने से नकार दिया हो और उन्हें दी जाएं जो खड़ी हैं दरवाज़े पर मांस का वीभत्स लोथड़ा सालिम बिना किसी वस्त्र के अपनी निर्लज्जता में सकुचाईं जिन्हें भाभी मां बहन या पत्नी मानने से नकार दिया गया हो  कौन हैं ये दो औरतें जो बग़ल में कोई पोटली दबा बहुधा निर्वस्त्र भटकती हैं शहर की सड़क पर बाहोश मुरदार मन से खींचती हैं हमारे समय का चीर और पूरी जमात को शर्म की आंजुर में डुबो देती हैं ये चलती हैं सड़क पर तो वे लड़के क्यों नहीं बजाते सीटी जिनके लिए अभिनेत्रियों को यौवन गदराया है महिलाएं क्यों ज़मीन फोड़ने लगती हैं लगातार गालियां देते दुकानदार काउंटर के नीचे झुक कुछ ढूंढ़ने लगते हैं और वह कौन होता है जो कलेजा ग़र्क़ कर देने वाले इस दलदल पर चल फिर उन्हें ओढ़ा आता है कोई चादर परदा या दुपट्टे का टुकड़ा  ये पूरी तरह खुली हैं खुलेपन का स्‍वागत करते वक़्त में ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं ये कौन-सी महिलाएं हैं जिनके लिए गहना नहीं हया ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा  ये पहनने को मांगती हैं पहना दो तो उतार फेंकती हैं कैसा मूडी कि़स्म का है इनका मेटाफिजिक्‍स इन्हें कोई वास्ता नहीं कपड़ों से फिर क्यों अचानक किसी के दरवाज़े को कर देती हैं पानी-पानी ये कहां खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है जो मिलता है कम क्यों होता है लाज का व्यवसाय है मन मैल का मंदिर इन्हें सड़क पर चलने से रोक दिया जाए नेहरू चौक पर खड़ा कर दाग़ दिया जाए पुलिस में दे दें या चकले में पर शहर की सड़क को साफ़ किया जाए  ये स्त्रियां हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का ये मदर इंडिया हैं सही नाप लेने वाले दर्जी़ की तलाश में कौन हैं ये पता किया जाए...................... ................................................................ {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}}  काग़ज़ -------------------------------------------------चारों तरफ़ बिखरे हैं काग़ज़एक काग़ज़ पर है किसी ज़माने का गीतएक पर घोड़ा, थोड़ी हरी घासएक पर प्रेम एक काग़ज़ पर नामकरण का न्यौता थाएक पर शोक एक पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था क़त्लएक ऐसी हालत में था कि उस पर लिखा पढ़ा नहीं जा सकताएक पर फ़ोन नंबर लिखे थेपर उनके नाम नहीं थेएक ठसाठस भरा था शब्दों सेएक पर पोंकती हुई क़लम के धब्बे थेएक पर उंगलियों की मैलएक ने अब भी अपनी तहों में समोसे की गंध दाब रखी थीएक काग़ज़ को तहकर किसी ने हवाई जहाज़ बनाया थाएक नाव बनने के इंतज़ार में थाएक अपने पीलेपन से मूल्यवान थाएक अपनी सफ़ेदी सेएक को हरा पत्ता कहा जाता थाएक काग़ज़ बार-बार उठकर आता चाहते हुए कि उसके हाशिए पर कुछ लिखा जाएएक काग़ज़ कल आएगाऔर इन सबके बीच रहने लगेगाऔर इनमें कभी झगड़ा नहीं होगा.............................................................................  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}}  असंबद्ध---------------------कितनी ही पीड़ाएं हैंजिनके लिए कोई ध्वनि नहींऐसी भी होती है स्थिरताजो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं  ओस से निकलती है सुबह मन को गीला करने की जि़म्मेदारी उस पर हैशाम झांकती है बारिश सेबचे-खुचे को भिगो जाती है धूप धीरे-धीरे जमा होती हैक़मीज़ और पीठ के बीच की जगह मेंरह-रहकर झुलसाती है माथा चूमनाकिसी की आत्मा चूमने जैसा हैकौन देख पाता हैआत्मा के गालों को सुर्ख़ होते दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशनाएक ख़राब किस्म की कठोरता है...................................................................................;  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}} जिसके पीछे पड़े कुत्ते----------------------------------उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी झूल रही थीकपड़े गंदे थे, हाथ में थैली थी...उसके रूप का वर्णन कई बार कहानियों, कविताओं, लेखों, ऑफ़बीट ख़बरों में हो चुका हैजिनके आधार पर वह दीन-हीन किस्म का पगलेट लग रहा थाऔर लटपट-लटपट चल रहा थाऔर शायद काम के बाद घर लौट रहा थाजिस सड़क पर वह चल रहा थाउस पर और भी लोग थेरफ्तार की क्रांति करते स्कूटर, बाइक्स और तेज संगीत बाहर फेंकती कारें थींसामने रोशनी से भीगा संचार क्रांति का शो-रूम थाबगल में सूचना क्रांति करता नीमअंधेरे में डूबा अखबार भवनबावजूद उस सड़क पर कोई क्रांति नहीं थीगड्ढे थे, कीचड़ था, गिट्टियां और रेत थींइतनी सारी चीजें थीं पर किसी का ध्यान उस पर नहीं था सिवाय वहां के कुत्तों के वे उस पर क्यों भौंकेक्यों उस पर देर तक भौंकते रहेक्यों देर तक भौंककर उसे आगे तक खदेड़ आएक्यों उसकी लटपट चाल की रफ्तार को बढ़ा दिया उन्होंनेक्यों चुपचाप अपने रास्ते जा रहे एक आदमी को झल्ला दियाजिसमें संतों जैसी निर्बलता, गरीबों जैसी निरीहताईश्वर जैसी निस्पृहता और शराबियों जैसी लोच थीकिसी का नुकसान करने की क्षमता रखने वालों का एकादश बनाया जाए तो जिसेसब्स्टीट्यूट जैसा भी न रखना चाहे कोईऐसे उस बेकार के आदमी पर क्यों भौंके कुत्ते कुत्तों का भौंकना बहुत साधारण घटना हैवे कभी और किसी भी समय भौंक सकते हैंजो घरों में बंधे होते हैं दो वक्त का खाना पाते हैंऔर जिन्हें शाम को बाकायदा पॉटी कराने के लिएसड़क या पार्क में घुमाया जाता हैभौंककर वफादारी जताने की उनकी बेशुमार गाथाएं हैंलेकिन जिनका कोई मालिक नहीं होताउनका वफादारी से क्या रिश्ताजो पलते ही हैं सड़क परवे कुत्ते आखिर क्या जाहिर करने के लिए भौंकते हैंये उनकी मौज है या अपनी धुन में जा रहे किसी की धुन से उन्हें रश्क हैवे कोई पुराना बदला चुकाना चाहते हैं याटपोरियों की तरह सिर्फ बोंबाबोंब करते हैं ये माना मैंने कि एक आदमी अच्छे कपड़े नहीं पहन सकतावह अपने बदन को सजाकर नहीं रख सकताकि उसका हवास उससे बारहा दगा करता हैलेकिन यह ऐसा तो कोई दोष नहींप्यारे कुत्तोकि तुम उनके पीछे पड़ जाओऔर भौंकते-भौंकते अंतरिक्ष तक खदेड़ आओआखिर कौन देता है तुम्हें यह इल्म कि किस पर भौंका जाए और किससे राजा बेटा की तरह शेक हैंड किया जाएजो अपने हुलिए से इस दुनिया की सुंदरता को नहीं बढ़ा पातेऐसों से किस जन्म का बैर है भाईयह भौंकने की भूख है या तिरस्कार की प्यासया यह खौफ कि सड़क का कोई आदमी तुम्हारी सड़क से अपना हिस्सा न लूट ले जाए जिसके पीछे पड़े कुत्ते उसे तो कौम ने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया थाउसे दो फलांग और छोड़ आना किसकी सुरक्षा है उसके हाथ में थैली थीजिसमें घरवालों के लिए लिया होगा सामानवह सोच रहा होगा अगले दिन की मजदूरी के बारे मेंकिसी खामख्याली में उससे पड़ गया होगा एक कदम गलतऔर तुम सब टूट पड़े उस पर बेतहाशाजिस पर व्यस्त सड़क का कोई आदमी ध्यान नहीं देताफिर भी हमारे वक्त के नियंताओं के निशाने पर रहता है जो हर वक्तकुत्तो, तुम भी उस पर ध्यान देते हो इतनाकि वह उसे निपट शर्मिंदगी से भिड़ा दे और यह अहसास ही अपने आप में कर देता है कितना निराशकि जिसके पीछे पड़ते हैं कुत्तेवह उसी लायक होता है........................................................................................;;  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}} डेटलाइन पानीपत---- -------------------------------------------- वाटरलू पर लिखी गई हैं कई कविताएंपानीपत पर भी लिखी गई होंगीकार्ल सैंडबर्ग ने तो एक कविता में घास से ढांप दिया था युद्ध का मैदानयहां घास नहीं है, यक़ीनन कार्ल सैंडबर्ग भी नहीं किसी न किसी को तो दुख होगा इस बात पर कुछ युद्ध याद रखे जाते हैं लंबे समय तककई उत्सव भुला दिए जाते हैं अगली सुबहमुझे पता नहींपुरातत्ववेत्ताओं को इसमें कोई रुचि होगीकि खोदा जाए यहां का कोई टीलाकिसी कंकाल को ढूंढ़ा जाए और पूछा जाए जबरनतुम्हारे जमाने में घी कितने पैसे किलो थाकितने में मिल जाती थी एक तेजधार तलवार कुछ लड़ाइयां दिखती नहींकुछ लोग होते हैं आसपास पर दिखते नहींकुछ हथियारों में होती ही नहीं धारकुछ लोग शक्ल से ही बेहद दब्बू नजर आते हैंजो लोग मार रहे थे उन्हें नहीं दिखते थे मरने वालेहुकुम की पट्टियां थीं चारों ओर निगल जाती हैं रोशनी को युद्ध के लिए अब जरूरी नहीं रहे मैदानगली, नुक्कड़ और मुहल्लों का विस्तार हो गया हैकोई अचरज नहींबिल्डिंग के नीचे लोग घूम रहे हों लेकर हथियारकोई अचरज नहीं दरवाजा तोड़कर घर में घुस आएं लोग कुछ लोग हैं जो जिए जाते हैंउन्हें नहीं पता होता जिए जाने का मतलबकुछ लोग हैं जो बिल्कुल नहीं जानते एक इंसान के लिए मौत का मतलब घास नहीं ढांप सकती इस मैदान कोघास भी जानती हैहरियाली पानी से आती है, खून से नहीं युद्ध का मैदान अब पर्यटनस्थल हैकुछ लोग घर से बनाकर लाते हैं खानायहां अखबारों पर रख खाते हैंएक-दूसरे के पीछे दौड़ते हैं बॉल को ठोकर मारतेअंताक्षरी गाते-गाते हंसने लगते हैं कोई चीख किसी को सुनाई नहीं देती बच्चे यहां झूला झूल रहे हैंवे देख लेंगे जमीन के नीचे झुककर एक बारयकीनन बीमार पड़ जाएंगे......................................................................... {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}}  इतना तो नहीं--------------------------- मैं इतना तो नहीं चला कि मेरे जूते फट जाएं मैं चला सिद्धार्थ के शहर से हर्ष के गांव तकमैं चंद्रगुप्त अशोक खुसरो और रजिया से ही मिल पायामेरे जूतों के निशानडि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में हैंअभी कितनी जगह जाना था मुझेअभी कितनों से मिलना थाइतना तो नहीं चला किमेरे जूते फट जाएं मैंने जो नोट दिए थे, वे करकराते कड़क थेजो जूते तुमने दिए, उनने मुंह खोल दिया इतनी जल्दीदुकानदार!यह कैसी दगाबाजी है मैं इस सड़क पर पैदल हूं और खुद को अकेला पाता हूंअभी तल्लों से अलग हो जाएगा जूते का धड़और जो मिलेंगे मुझसेउनसे क्या कहूंगाकि मैं ऐसी सदी में हूंजहां दाम चुकाकर भी असल नहीं मिलताजहां तुम्हारे युगों से आसान है व्यापारजहां यूनान का पसीना टपकता है मगध मेंऔर पलक झपकते सोना बन जाता हैजहां गालों पर ढोकर लाते हैं हम वेनिस का पानीउस सदी में ऐसा जूता नहींजो इक्कीस दिन भी टिक सके पैरों में साबुतकि अब साफ दिखाने वाले चश्मे बनते हैंफिर भी कितना मुश्किल हैकिसी की आंखों का जल देखना और छल देखनाकि दिल में छिपा है क्या-क्या यह बता देऐसा कोई उपकरण अब तक नहीं बन पाया इस सदी में कम से कम मिल गए जूतेअगली सदी में ऐसा होगा कि दुकानदार दाम भी ले ले और जूते भी न दे? फट गए जूतों के साथ एक आदमी बीच सड़क पैदलकितनी जल्दी बदल जाता है एक बुत में कोई मुझसे न पूछेमैं चलते-चलते ठिठक क्यों गया हूं इस लंबी सड़क पर कदम-कदम पर छलका है खूनजिसमें गीलापन नहींजो गल्ले पर बैठे सेठ और केबिन में बैठे मैनेजर के दिल की तरह काला हैजिसे किसी जड़ में नहीं डाला जा सकताजिससे खाद भी नहीं बना सकते केंचुएयहां कहां मिलेगा कोई मोचीजो चार कीलें ही मार दे कपड़े जो मैंने पहने हैंये मेरे भीतर को नहीं ढंक सकतेचमक जो मेरी आंखों में हैउस रोशनी से है जो मेरे भीतर नहीं पहुंचतीपसीना जो बाहर निकलता हैभीतर वह खून हैजूते जो पहने हैं मैंने असल में वह व्यापार है अभी अकबर से मिलना था मुझेऔर कहना थाकोई रोग हो तो अपने ही जमाने के हकीम को दिखानाइस सदी में मत आनायहां खडि़ए का चूरन खिला देते हैं चमकती पुर्जी में लपेट मुझे सैकड़ों साल पुराने एक सम्राट से मिलने जाना हैजिसके बारे में बच्चे पढ़ेंगे स्कूलों मेंमैं अपनी सदी का राजदूतकैसे बैठूंगा उसके दरबार मेंकैसे बताऊंगा ठगी की इस सदी के बारे मेंजहां वह भेस बदलकर आएगा फिर पछताएगामैं कैसे कहूंगा रास्ते में मिलने वाले इतिहास सेकि संभलकर जानाआगे बहुत बड़े ठग खड़े हैंतुम्हें उल्टा लटका देंगे तुम्हारे ही रोपे किसी पेड़ पर मैं मसीहा नहीं जो नंगे पैर चल लूंइन पथरीली सड़कों परमैं एक मामूली, बहुत मामूली इंसान हूंइंसानियत के हक में खामोशमैं एक सजायाफ्ता कवि हूंअबोध होने का दोषीचौबीसों घंटे फांसी के तख्त पर खड़ा एक वस्तु हूंएक खोई हुई चीखमजमे में बदल गया एक रुदन हूंमेरे फटे जूतों पर न हंसा जाएमैं दोनों हाथ ऊपर उठाता हूंइसे प्रार्थना भले समझ लेंबिल्कुल समर्पण का संकेत नहीं..............................................................   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}} नश्तर (मराठी कवि स्व. भुजंग मेश्राम के लिए)------------------------------------------------------------------------ पीड़ाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है और दुख का निजीकरणदर्द सीने में होता है तो महसूस होता है दिमाग में दिमाग से उतरता है तो सनसनाने लगता है शरीर प्रेम के मकबरे जो बनाए गए हैं वहां बैठ प्रेम की इजाजत नहींपुरातत्वविदों का हुनर वहां बौखलाया हैरेडियोकार्बन व्यस्त हैं उम्रों की शुमारी में सभ्‍यताओं ने इतिहास को कांख में चांप रखा हैआने वाले दिनों के भले-बुरेपन पर बहस तो होती ही हैमरे हुए दिनों की शक्लोसूरत पर दंगल हैतीन हजार साल पहले की घटना तय करेगीकिसे हक है यह जमीन और किसके तर्क बेमानी हैंकौन मजबूर है कौन गाफिलकिसने युद्ध लड़ा आकाश में कौन मरा मुंबै मेंबरसों सोच किसने मुंह से निकाले कुछ लफ्जएक साथ एक अरब लोगों की रुलाहट बाद उसके कानों पर वह कौन-सी जूं है जिसे बेडि़यां बंधींकिन किसानों ने कीं खुदकुशियां वीटी की एक इमारत ने किया लोगों को रातोरात खुशहाल कितने कंगाल हुए भटक गएहरे पेड़ों की तरह जला दिए गए लोगजबरन माथे पर खोदे गए कुछ चिह्न तुलसी के पौधों पर लटके बेरहम सांपों की फुफकार लाचार घासों को डसने का शगलइस तरफ कुछ लोग आए हैं जो बड़े प्रतीकों-बिंबों में बात करते हैंइसकी मजबूरी और मतलबमालूम नहीं पड़ताबताओ, दिल पर नहीं चलेंगे नश्तर तो कहां चलेंगे...........................................................................   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गीत चतुर्वेदी}} सुब्हान अल्लाह------------------------------------------रात में हम ढेर सारे सपने देखते हैं सुबह उठकर हाथ-मुंह धोने से पहले ही भूल जाते हैं हमारे सपनों का क्या हुआ यह बात हमें ज्यादा परेशान नहीं करतीहम कहने लगे हैं कि हमें अब सपने नहीं आतेहमारी गफलत की अब उम्र होती जा रही हैहम धीमी गति से सड़क पार करते बूढ़े को देखते हैंहम जितनी बार दुख प्रकट करते हैं हमारे भीतर का बुद्ध दगाबाज होता जाता हैमद्धिम तरीके से सुनते हैं नवब्याही महिला सहकर्मी से ठिठोलीजब पता चलता है शादी के बाद वह रिश्वत लेने लगी हैहमारे भीतर एक मूर्ति के चटखने की दास्तान चलती हैवे कौन-सी चीजें हैं, जिनने हमें नजरबंद कर लिया है हम झुटपुटे में रहते हैं और अचरज करते हैंअंधेरे और रोशनी में कैसा गठजोड़ है हमारे खंडहरों की मेहराबों पर आ-आ बैठती है भुखमरीहमारे तहखानों से बाहर नहीं निकल पाती छटपटाहटपानी से भरी बोतल में जड़ें फैलाता मनीप्लांट है हमारी उम्मीदहम सबके पैदा होने का तरीका एक ही हैहम सब अद्वितीय तरीकों से मारे जाएंगे, तय नहींकौन-सी इंटीग्रेटेड चिप है जो छिटक गई है दिमाग सेक्या हमारे जोड़ों को ग्रीस की जरूरत है? अपनी उदासी मिटाने के लिए हममें से कई के शहरों मेंहोता है कोई पुराना बेनूर मंदिर, नदी का तटसमुद्र का फेनिल किनारा या पार्क की निस्तब्ध बेंचया घर में ही उदासी से डूबा कोई कमरा होता है अलग-थलगजिसकी बत्तियां बुझा हम धीरे-धीरे जुदा होते हैं जिस्म से हम पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी हिस्से में साध सकते हैं संपर्कतुर्रा यह कि कहा जाता है इससे विकराल असंवाद पहले नहीं रहा कुछ लोगों को शौक हैबार-बार इतिहास में जाने कादूध और दही की नदियों में तैरने काउन्हें नहीं पता दूध के भाव अब क्या हो रहे हैंवे हमारी पशुता पर खीझते हैंउन्हें बता दूं ये बेबसीहमारे लिए सिर्फ गोलियां बनी हैंबंदूक की और दवाओं की फिर भी वह कौन-सी खुशी है जो हमारे भीतर है अभी भीकि हर शाम हम मुस्कराते हैंअपने बच्चों को खिलाते हैं और दरवाजा बंद कर सो जाते हैं कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों और मुर्दुस रंगों वालेमॉडर्न आर्ट सरीखे अबूझ चेहरों पर नाचता है मसान का दुखचिता
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