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04:10, 13 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
मैं बिना हिले डुले
बिना सर घुमाए
देखता हूँ वह सब
जितना दिख जाता है
खुद ब खुद
आसानी से
जितना दिखाना चाहता है वह
जो समक्ष खड़ा रह जाता है
युद्ध के बाद!
वही फिर
भर देता है
मेरे मुंह में
कानो में
आँखों के आगे
चमकीले हीरे मोती
और पकड़ा देता है हाथों में
कलम
फिर जो कुछ वह कहता है
मैं लिखता जाता हूँ
सब लिख लेने के उपरांत
सामने देखता हूँ-
मेरे आगे वह राम बना बैठा होता है
और
चरणों में होता है
पराजित, मृतप्राय रावण!
</poem>
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