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बारहमासा / जया पाठक श्रीनिवासन

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<poem>
पृथ्वी कहती नहीं खुद उस से
अपने मन की बात
हाँ ! पलाश की सुलगती उंगलियां
उसकी ओर इंगित कर
लजा जाती है कुछ
छेड़ती है फाग सा कुछ
बिना उसकी ओर देखे
आसमान में बहुत से नीले कमल
खिले होते हैं तब

धूप चढ़ाती है
धरती की देह पर
कनक के वरक़
आसमान नाचता है
धूल के ढोल बजाता हुआ
हांफते हैं पहाड़ जंगल
थके भूरे बैल से
मटमैली नदी रातभर
खोजती है तारों में
चैती का धीमा राग.......

प्रकृति रोपती है धान के साथ
एक किसान के हिस्से का अवसाद
एक मौसम गुज़रता है
बादलों का कुशल छेम पूछते हुए
जंगल भीगी हुयी बरसाती में
झींगुरों की फ़ौज लिए
सीले खडे रहते हैं पूरे भादो
पेड़ों की जड़ों में
उग आती खिले-हरे रंग के मखमल पर
कुकुरमुत्तों की बरात
मंत्रमुग्ध कोई
गाता है कजरी
आसमान को पिघलता देख

दरवेश सी पृथ्वी नाचती है
लगातार
अपनी धुरी पर
किसी अनहद नाद के आनंदातिरेक में
अंतरिक्ष में टंकी हुयी कवितायेँ
गिरने लगती हैं उसकी और
मौसमी उल्काओं सी
कि सहसा
एक स्त्री उन्हें उठाकर गाने लगती है
एक मीठा गीत
</poem>
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