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04:12, 13 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
|अनुवादक=
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<poem>
वह जागी है आज
मध्य रात्रि
खड़ी है
स्वप्न सी
कोरे कनवास के सामने
इतनी रात गए?
क्यों भला?
रोज़ तुम्हारे आफ़ताबी उजाले में
चाँद सा आइना बनती
थक गयी थी वह
रात भरे अंधेरे एकांत में
अब खोजती है
अलग अपने नक्श
अंतस के महीन रंगों में
डुबो अपनी उंगलियाँ
कोरे कनवास पर फेर
वह उकेर रही है
अपना आप
आज वह केवल प्रतिबिम्ब नहीं
एक चित्र हो जाना चाहती है.
</poem>
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