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(यह कविता बर्लिन की दीवार के गिरने और तत्कालीन आंदोलन के बाद लिखी गयी थी.)

जब पश्चिम
गति के नियम खोज रहा था,
हम मंदिर तोड़ रहे थे,
विधवाएं जला रहे थे.

जब वे सापेक्षता का सिद्धांत
प्रतिपादित कर रहे थे,
हम मानव को अन्त्यज,
अस्पृश्य, अवहेलनीय बता रहे थे.

आज जब वे दीवारें तोड़
विश्व बंधुत्व का अलख जगा रहे हैं,
हम फिर मंदिर मस्जिद तोड़
रक्त स्नान करने को अधीर हैं.

सब कुछ कहना मेरे दोस्त,
पर अब यह कभी मत कहना कि
'जब पश्चिम नंगा घूमता था
प्राची उपनिषदों की वाणी बोलता था'

ऐसी बातों से सड़ी हुई लाशों
की बदबू आने लगी है.

(प्रकाशित, विश्वामित्र, कलकत्ता, १५ अगस्त १९९०)
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