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<poem>
पांच साल पहले
जम्मू के हवाई अड्डे पर
हमारे साथ पहुंचा
तिरंगे में लिपटा एक ताबूत
जाने किस दुआ का असर
जाने किस मजार का प्रसाद
जाने किस माँग का सिन्दूर
जाने किस राखी के लिए हाथ
जाने किस आँचल का दूध,
जाने किस हाथ की लाठी.
जाने किस सर की छाया.

और सब तरफ खामोशी
छा गयी.
और मुझे लगा कि
जाने वाला अकेला न था.

कल फिर जम्मू के हवाई अड्डे पर
हमारे साथ पहुँचा
तिरंगे में लिपटा ताबूत.
किसी माँग का सिन्दूर
किसी दुआ का असर
किसी मजार का प्रसाद
किसी राखी के लिए हाथ
किसी हाथ की लाठी
किसी आँचल का दूध
किसी सर की छाया.
निगाहें उठीं,
पलक तक न झपकी.

और कहकहे लगते रहे,
बच्चे शोर मचाते रहे,
और कश्मीर की वादियों से
घूम कर आये जोड़े,
एक दूसरे से लिपटे
एक दूसरे में खोये रहे
फुसफुसाते रहे,
मुस्कराते रहे.

बस ताबूत के साथ आयी वर्दियाँ
खाली आँखों से
देखती रहीं,
दुनिया भर से आये
आपस में खोये
एक दूसरे से लिपटे जोड़ों को,
कहकहे लगाते लोगों को,
और शोर मचाते बच्चों को.

और तिरंगे में लिपटा ताबूत
अकेला पड़ गया,
बिलकुल अकेला
अभिमन्यु की तरह.

( रचनाकाल - १७ जून २००४ )

कारगिल युद्ध के दौरान जम्मू गया और पांच साल बाद फिर. दृश्य वही पर- लोगों की प्रतिक्रया देख कर मन खिन्न हो गया. आज भी ऐसे प्रस्तुत करते क्लेश हो रहा है कि मैं अपने सैनिकों के बलिदान को कम कर आँक रहा हूँ. बड़ी हिम्मत करके ही प्रस्तुत कर पा रहा हूँ.
</poem>
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