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|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
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<poem>
ओ री मानवता !
ज़रा बताना तो-
कि जब तुझे अरस्तू
के साथ जहर दे दिया गया था,
ईसा मसीह के साथ सूली पर चढ़ा दिया गया था,
गाँधी के साथ गोलियों से भून दिया गया था,
तब भी तू कैसे बच गयी.

चंगेज़ खां ने तुझे जलाया,
तैमूर और नादिरशाह ने
तुझे कलम किया,
नाज़ियों ने तो तेरी सांसों तक में
जहर भर दिया.
फिर तू जीती रही.
तुझे नाम देने वाले
तेरे अभिषेक के बहाने
तुझे रौंदते रहे,
लाखों लोगों को उनकी
धरती से उखाड़ते रहे,
फिर भी तू जीती रही.
अद्भुत है तेरी जिजीविषा !

तुझे लोग कम्युनिस्ट कह कर मारते हैं,
क्रांति का विरोधी कह कर मारते हैं.
हिन्दू कह कर मारते हैं
मुसलमान कह कर मारते हैं.
और कुछ न मिला तो
नास्तिक कह कर मारते हैं.
बहाने खोज-खोज कर मारते हैं.
फुटपाथों पर मारते हैं,
झोपड़ पट्टियों में मारते हैं.
घरों में मारते हैं,
सड़कों पर मारते हैं.
और कुछ न मिला तो सदनों में
मारते हैं.
पर मानवता !
तू तो रक्तबीजी है रे !
जब तक हृदयहीनता की काली
तेरा बहता रुधिर
अपने क्षुद्र स्वार्थों के खप्पर में
नहीं रोपेगी,
तू मर मर कर जीती रहेगी.

या फिर कहीं ऐसा तो नहीं-
कि तेरा रुधिर इस खप्पर में भी
नहीं समाता !
और जैसे ही उसकी एक भी बूँद,
सत्य की धरती पर पड़ती है-
तू फिर जी उठती है.
तू तो सचमुच रक्तबीजी है रे,
ओ मानवता !!


</poem>
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