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सिलसिला / दिनेश श्रीवास्तव

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<poem>
मैं इंतज़ार में बैठा हूँ,
साहब के कमरे के बाहर.
उनके दरवाजे पर जलती
लाल बत्ती
मुझे बता रही हैं, मेरी हस्ती.

मैं इंतज़ार में बैठा हूँ.
मैंने बाल सँवारे, टाई ठीक की
पतलून की क्रीज़ संभाल
चेहरे को पोंछा,
जम्हाई ली.
हलके से खंखार कर गला साफ़ किया.
शुष्क ओठों पर जीभ फिराई,
सारी उँगलियाँ चटकाई,
बड़ी मेहनत से अर्जित
प्रमाण पत्रों के बण्डल को देखा.

यह सब कई बार किया.
पर साहब व्यस्त रहे.
लाल बत्ती जलती रही.

लाल बत्ती बुझी.
आशा की एक किरण
जगमगाई मेरे मन में.
मैं तैयार हुआ साक्षात्कार के लिये.
दरवाजा खुला. बुलावा आया.
अंदर गया.

'गुड मॉर्निंग सर'
सर के सिर ने हल्की
सी जुम्बिश ली.
'बैठिये'
'धन्यवाद'
'आपका परिचय'
मैंने नाम बताया.
'आयी मीन, कोई जान पहचान'
'सर, नया हूँ, किसी को नहीं जानता.'
'पहले का कोई अनुभव'
'जी नहीं, अभी तक बेकार हूँ'.
सन्नाटा.

'सर मेरे सर्टिफिकेट्स'
उन्होंने मेरे प्रमाण-पत्रों को
उलटा पलटा.
'ठीक हैं, पर हमें अनुभवी आदमी
चाहिये था, आई ऍम सॉरी
बट यू सी व्हाट आई मीन?'

मैं समझ गया था.
कैसे न समझता.
पच्चीसों बार तो यही सुन चुका हूँ.
फिर भी गिड़गिड़ाया,
खींसे निपोर, कड़ी मेहनत और
वफादारी का वादा किया.

साहब की ऊबी दृष्टि
सामने नाक की सीध में
शून्य में स्थिर रही.
मेरे याचना भरे शब्द
उनके कानों से टकराते रहे.
जैसे समुद्र की लहरें
किनारों पर सर पटकती हैं- व्यर्थ.

बाहर निकला,
थोड़ा झिझका
फिर अपने अस्तित्व की क्षुद्रता स्वीकार
सड़क पर आ गया.

लाल बत्ती फिर जल गयी थी.
</poem>
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