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|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
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<poem>
कभी कभी यह कलकत्ता शहर
मुझे अपनी बेटी सा लगता है,
जिसकी शरारतों को मेरी हिदायतें निगल गयी हैं.
जो जानती है अपनी क्षमता,
और यह भी जानती है कि
वह औरत जात है.
एक दिन ब्याह कर
दूसरों के घर जायेगी.
जाने कैसा घर होगा, जाने कैसा वर
प्यार मांगेंगे लोग, बदले में नफ़रत देंगे.
इस शहर के पैसे वालों की तरह !
***
कभी मुझे यह शहर
अपने बेटे सा लगता है.
भावुक, आत्मलीन
डांट पड़ते ही डबडबाई आखें लिए
परी कथाओं का नायक बना
उड़न तस्तरी लिए चला जाता है
दूर के सितारों के पास.
अपनी व्यथा सहने के लिए
इस शहर के पास और चारा भी क्या है?
***
फिर कभी लगता है कि यह शहर मेरी बहनों सा है.
जो इतनी दूर से हर साल राखी भेजती हैं,
बच्चों को मामा की कहानी सुनाती हैं,
और यह मान कर खुश हो लेती हैं,
कि विपत्ति आने पर भैया तो हैं.
और करे भी क्या यह शहर
सिवाय खुशफहमियां पालने के !
***
कभी यह शहर मुझे
अपने भाईओं सा लगता है.
अत्याचार देखते ही फुफकारता,
मेरी बगल में सीना तान कर खडा हो जाता है.
फिर जल उठती हैं दिशाएं और
मेरे अकेले होने का अहसास हल्का हो जाता है!
***
कभी मुझे यह शहर
अपनी बीबी सा लगता है.
सुन्दरता चीथड़ों में लपेटे,
तत्परता थकी अँगुलियों में भरे,
काल के पहिये के घूमने के इंतजार में,
सुबह से शाम
दरवाजे पर आँखे टिकाये.
इंतज़ार करने के अलावा
यह शहर कर ही क्या सकता है?
***
मेरा दुःख सुनते ही
इस शहर में सन्नाटा छा जाता है.
न बच्चे खिलखिलाते हैं
न चिड़िया चहकती है |
मिलों का धुंवा सडकों पर फ़ैल जाता है.
बीच दुपहरिया में सूरज डूब जाता है.
बसों में बैठे लोग
छेड़खानी नहीं करते.
फूटपाथ पर भिखारी पीछा नहीं करते !
****
मेरे दुःख से एकाकार हुआ
यह शहर चुपचाप.
मेरी पीड़ा की चादर ओढ़
मेरी व्यथा बांटने को तत्पर हो उठता है !
***
तभी तो कहता हूँ
कि यह शहर मेरी माँ जैसा है.
जब मैं उसे दफ्तर में मिले
अपमान की बातें सुनाता हूँ
तो वह बस चुप हो जाती है
और मैं शांत.
अपनी नियति स्वीकारने का ढंग
सिखलाता है यह शहर.
यह शहर नहीं मेरा घर है !

</poem>
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