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03:06, 15 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'
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<poem>
कितना अंतर होता है
आर्द्र अम्बर की ज्योत्स्ना
और टूटे सितारे की अंतिम दृष्टि में?
हृदय प्रेम के धवल घर्षण की
सूक्ष्मतम ध्वनि भी हो जाता
तो भी कभी न सुन पाता
मेरे उन्मुक्त वक्षों पर निद्रालीन तितली का स्वप्न स्वर.
रात्रि किसी पहर
मेरी रखवाली करती तुम्हारी प्रेतछाया
सड़क का हर शोर
सलीके से छुपा लेती है अपने जनेऊ के पास.
और मसहरी किनारे रखा
पानी से भरा तांबे का लोटा
दो तैरती रूहों की हल्की सी हलचल से जब जाग जाता
तो ऊंघते हुए भींच लेता आँखे.
मैं खाते हुए गुलकंद का पान
इलायची रख देती थी तुम्हारी कत्थई जिव्हा पर.
यही संकेत था
जनेऊ और मेरी चांदी के कमरबंद की उलझन का.
</poem>
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