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कार के सफ़र के दौरान मैं ऊंघने लगता हूँ और उसे सड़क के किनारे पेड़ों के नीचे ले जाकर खड़ी कर देता हूँ. फिर पिछली सीट पर जाकर मैं गुच्छा-मुच्छा होकर सो जाता हूँ. कितनी देर तक? घंटों. अंधेरा घिर आता है.

अचानक मैं जाग जाता हूँ और जान नहीं पाता कि मैं कहाँ हूँ. पूरी तरह से जाग जाता हूँ मगर इससे भी कोई फायदा नहीं होता. मैं कहाँ हूँ? कौन हूँ? मैं कोई चीज भर हूँ जो पिछली सीट पर जाग गई है और घबराहट में कसमसा रही है जैसे बोरे में बंद कोई बिल्ली. मैं कौन हूँ?

आखिरकार मेरे प्राण वापस आ जाते हैं. मेरा नाम किसी देवदूत की तरह प्रकट होता है. दीवारों के बाहर तुरही का एक संकेत बजता है (लिओनोरा ओपेरा की शुरूआत की तरह) और लम्बी सीढ़ियों पर होशियारी से उतरते राहत दिलाने वाले क़दमों की आवाज़ सुनाई देती है. यह मैं हूँ! मैं हूँ!

मगर मुख्य सड़क से कुछ मीटरों की दूरी पर जहां बत्तियां जलाए हुए गाड़ियां तेजी से गुजर रही हैं, विस्मृति के नर्क में गुजरे उन पंद्रह सेकेंडों के संघर्ष को भुला पाना नामुमकिन है.

'''(अनुवाद : मनोज पटेल)'''
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