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12:35, 20 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुरेश चंद्रा
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|संग्रह=
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<poem>
सैरंध्री!
निशा के निखरे
प्रातः बिखरे
दीये पुनः सँवारना
बुहारना,
शेष हुई रात्रि
अवशेष से, स्मिति,
सृजन चुन लेना
मन के झरोखों, अट्टारिकाओं में,
रक्षित बीन रखना हर्ष, आस, उल्लास
सजाये रखना सदैव, जीवन-उत्सव
सदा-सदा के लिये.
</poem>