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13:05, 20 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राकेश पाठक
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<poem>
मुझे हर मुस्कुराता हुआ शख़्स खुदा लगता है
ये कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है
तिमिर के धुंध को मिटाने की एक कोशिश भर है मुस्कुराने को कहना
जब ख़ुद से कहा मुस्कुराना
तो आँसुओं से भरे थे हम
जब फूलों से कहा मुस्कुराना
तो उदास मौसम सामने खड़ा था
बच्चों से मुझे कुछ भी कहना नही पड़ा
उन सभी बच्चों के चेहरे पर ईश्वर ही मुस्कुरा रहे थे.
</poem>
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