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|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
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<poem>
सियासत की सर्द आँधियों में
एक गर्म सोच से डरते हो?
गर आग तापना है
तो तैयार रहो
काले कड़वे धुएँ को
पीने के लिए
पिछली रात अवांछित लकड़ियों के गट्ठर
बाहर छोड़ दिए थे तुमने
सत्ता में मद में चूर
बेफ़िक्री से यूँ ही
पिछली रात सर्द थी
शीत भी पड़ी थी रात
आज कमरे में कड़वा धुँआ भर जाए
तो प्रश्न मत करना
शीत से गीली लकड़ी
नहीं जलती ठीक से
हाँ, यह तुम्हारी कुर्सी ज़रूर सूखी है
जलाकर देखो
शायद शीत का असर
कुछ कम हो
इसपर
वरना उन अवांछित गीली लकड़ियों की आग
जनतंत्र की स्याही है

याद रखना!
</poem>
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