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|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
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<poem>
वह मूर्तिकार कहता है
यह मिट्टी माँ की आकृति में ढलेगी
यह पुण्य स्वरूपा है
पवित्र है
क्योंकि वह फूल
जो झर गया था
अपनी डाल से
(देवताओं के निमित्त नहीं हो सकता था अब)
भू पर पड़ा था रौंदा हुआ
वह मिला है इसी मिट्टी में
और
इसी मिट्टी में है
वह सारा पुण्य भी
जो झर गया था
उन संभ्रांतों के देह से
जो आये थे यहाँ
इस वाटिका में
उस झरे धूल धूसरित फूल को
जो पड़ा था यहाँ
रौंदने के लिए

उनके माथे से झरा मान
और पैरों तले कुचले फूल के अपमान को
बटोर लेगा
वह कलाकार
और रचेगा रचयिता
उस रचयिता का उत्सव
यह उत्सव ही तो
रीतियाँ ढोने वाले समाज का
पारिश्रमिक होगा.
</poem>
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