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09:15, 23 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुरेश चंद्रा
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|संग्रह=
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<poem>
तुम क्यूँ पहुँची मुझ तक?
खुद को तुम मे ठहरा कर
मैं काहे थम गया?
कितनी जल्दबाज़ी तो थी
तुम्हें ज़िन्दगी जीने की
हर एक क़तरे को समंदर समझ कर
हड़बड़ी थी मुझमें कितनी-कितनी
सब खो देने की बस एक आदत
आख़िर फ़ितरतन पा लेने की
बीते मौसम से
कौन सा सावन लौटा है?
सिवाय पतझड़ की खड़खड़ाहट के
क्या पीठ पर छिलता है ज़हन के
जानती तो हो तुम
मुझसे पहले
तुम सिर्फ प्यास थी
ग़ाफ़िल गुज़रती हुई
नादानियों की मानिंद
मैं मानता हूँ आख़िर
लाचारगी, आवारगी भर था
ख़्वाहिशों, हसरतों की तिमारगी भर
ज़हन से ज़हन नाक़ाबिल
बदन से बदन बुदां सरकता हुआ
सिलसिलों से बेकारां बारहा उधड़े-उधड़े
सब से बेहतर जो सबसे कमतर मिले
बुदबुदा उठी अपनी-अपनी कारिन्दगी
मिले आखिर अब? इस तरह? जा कर क्यूँ
तुम शुरू से क्यूँ नहीं ही मिली ज़िन्दगी?
तुम क्यूँ पहुँची मुझ तक?
खुद को तुम में ठहरा कर,
मैं काहे थम गया?
</poem>