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16:12, 25 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामनरेश पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
एक-एक कर सब कुछ
शामिल हो गया है भीड़ में
रखवाली बच्चों की आँख
या फिर
पीपल के बूढ़े दरख़्त में तबदील हो गयी
कहवे की मेज़ पर बातें उगीं
दिन बटोर ले गया
रातें काट ले गयीं
शामें मारजुआना में डूब गयीं
कोशिशों की चुप्पियाँ सख्त पड़ती गयीं या
मादरजाद नगी हो गयीं
शोर सवालों के जिस्म बने
पहले गाँव फिर कसबे फिर शहर फिर नगर फिर महानगर
यात्राएं और युद्ध
विज्ञान और दर्शन
मिथक और समाचार
ताप और न्यष्टि के अंतरिक्ष में लोग
अनुभव की सीमा पर
वजहों की किसी भी बहस में पड़ने से अच्छा है
सीटी बजाना...हिप्प-हिप्प हुर्रे कहना या गालियाँ बकना
सभ्यता, संस्कृति, इतिहास
कला, साहित्य, संगीत
दिक्, काल और मृत्यु के नाम पर
</poem>