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विक्रमण / रामनरेश पाठक

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|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
पीठ और महानगर के बीच
कोई भी संधि नहीं है

सावित्री और गायत्री के टकराव से विकीरित
रासायनिक चिंगारियों से कई-कई इन्द्रधनुषों के
वृत्त, कोण, त्रिभुज, आयत और ज्यामितिक आकार अन्य
स्वगत को छूकर निकल जाते हैं

कमरे की सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े बंद हैं

महापरिनिर्वाण की चिंता में लीन
उपसम्पदा ग्रहण करने की मुद्रा में
कई जातक ऊँघते हैं सड़कों और चौराहों पर

एक गौरेय्या पीती है घड़े का रस
नमस्कार की मुद्राएँ, ऋतुओं के नृत्य
परंपरा और प्रयोग

काल और आयाम से रिक्त ऋचाओं में
गुम है एक तलाश और
एक उपनिषद की रचना की विवेक तृषा
ढूंढती फिरती है दूसरे ग्रह-पिंडों को
इतिहास और अभिवृत्ति के बीच ऊर्जा है
अनवरतता की एक निस्तब्धता है और लोग हैं

द्वार से होकर कमरे की मेज तक पहुँचने में
संभावनाओं को भय होता है
संवेगों पर शीर्षक और तिथियाँ नहीं हैं

एक सूखे समुद्र का विवृत्त स्तब्ध हाहाकार
लील रहा है
अनस्तित्व, ले पारद-तरलता और
पारदर्शी काले दर्पण को
</poem>
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