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18:16, 25 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामनरेश पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
इतिहास काल के आर-पार
यात्रा करता है
संबोध की कौंध से
परिबोध के अंतिम फैलाव तक
अंतरालों पर
मनुष्य, घटनाएँ, संघर्ष, सिद्धांत, सभ्यताएँ
जन्म की गहराई से
उपलब्धि की ऊँचाई तक
फैलती जाती हैं और
बूँद समुद्र बन जाती है
आग का आदमी और
आदमी की आग का सम्बन्ध
इतिहास ढूँढता है
परिणति के हर पड़ाव पर और
अपनी डायरी में टाँकता है
मूलधन, ब्याज, सदाव्रत और विनियोग
और यह भी कि
काली रात
सुबह, सुनहली सुबह कैसे बन जाती है
मूक, जड़, असहाय को
जीवन कैसे मिलता है या फिर
गीले खेत या काली चट्टानों की छाती से
फसल कैसे उगती है
झरने कैसे फूटते हैं और
सच यही है कि
महाकाव्य जन्म लेते ही हैं
शक्ति को आकार मिलता ही है और
जड़ कली में, कलि फूल में, फूल ईश्वर में
बदल ही जाता है
और इतिहास
काल के आर पार
यात्रा करता है
</poem>