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|रचनाकार=राजीव भरोल
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आमों की खुशबू में लिपटी गर्मियों की वो दुपहरी
शहद, गुड़, मिसरी से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी

याद हैं वो धूप में तपती हुई सुनसान गलियां
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

गाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको
थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी

चिलचिलाती धूप थी और सायबाँ कोई नहीं था
पूछिए मत कैसे गुज़री गर्मियों की वो दुपहरी

वो हवा से उड़ रहे पत्तों की सरगोशी थी या फिर
नींद में कुछ कह रही थी गर्मियों की वो दुपहरी

मैंने इतना ही कहा, मुझको नहीं भाता ये मौसम
बस इसी पे रूठ बैठी गर्मियों की वो दुपहरी

शाम होते होते थक कर सो गई पहलू में मेरे
धूप की दिन भर सताई गर्मियों की वो दुपहरी