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वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,
 
पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी.
 
रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,
 
मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था
 
 
पहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,
 
कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का.
 
श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,
 
अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी.
 
 
तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,
 
किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से.
 
व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,
 
कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया.
 
 
एक दिवास जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,
 
कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को.
 
कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,
 
अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा.
 
 
हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,
 
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को.
 
किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,
 
कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था.
 
 
विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चाहक रहे थे,
 
धूप, डीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे.
 
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
 
इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला.
 
 
कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आओ,
 
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ.
 
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
 
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है.
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