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यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है.
 
 
'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?
 
अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?
 
मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,
 
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से.
 
 
'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
 
भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना!
 
आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
 
उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर.
 
 
'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है!
 
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है.
 
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,
 
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?
 
 
'दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,
 
नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,
 
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधारों का,
 
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नारों का.
 
 
'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?
 
पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?
 
मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,
 
मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ.
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