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'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,
 
बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का,
 
पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,
 
देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ.
 
 
'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की,
 
कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की.
 
हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,
 
अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का.
 
 
'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,
 
विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है.
 
मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,
 
पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं.
 
 
'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा?
 
इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा?
 
अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,
 
अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ.'
 
 
'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को,
 
दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,
 
'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है,
 
कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है.
 
 
'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा,
 
हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा.'
 
यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,
 
कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में.
 
 
चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे,
 
दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे.
 
सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में,
 
'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में.
 
 
अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला,
 
देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला.
 
क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से.
 
ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से.
 
 
'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,
 
तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,
 
अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे,
 
नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे.
 
 
किन्तु, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में,
 
बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में.
 
झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं?
 
करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?
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