1,448 bytes added,
03:47, 23 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
निस्बतों में जब से जां गठान सी निकल गई
तब से दर्मियां बला की खान सी निकल गई
'एक ही मिली कोई सुकून जिस के पास था
और यार वो भी कुछ महान सी निकल गई'
कह रहे थे हुस्न जिस निक़ाबो-पर्दगी को, वो
जब हिजाब उठ गया, ज़बान सी निकल गई
दौर की नवाज़िशों ने इस क़दर दिखाए दिन
आख़िरश बराए दिल अजान सी निकल गई
दिल्लगी ही दिल्लगी में जो हुआ ग़ज़ब हुआ
यार वो जिगर पे इक निशान सी निकल गई
हम भी दिलफ़रेब से निकल गए के हाए उफ़
'वो भी आए-हाए-उफ़ जवान सी निकल गई'
'ज़ख़्म पे नईम बन के आए थे वो और 'दीप'
इस तरह दबा दिया कि जान सी निकल गई'
</poem>