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08:08, 27 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कैलाश पण्डा
|अनुवादक=
|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
}}
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<poem>
कल्पनाओं के
प्रांगण में
सुख-दुखादि
पाटों के मध्य निर्वाह
कहने को छोर
जीवन की डोर
जो मुझ स्वयं के
भ्रम भ्रमर से उपज
किस्ती तो
रूकी हुई है
जलमग्र तो मैं हूं
जो घटित होता है
स्वीकार करता हूं
मानो भोग विलास की राह में
ठगा जाता रहा हूं
बुद्धि के मध्य
कोई विषैला सांप बैठा है
जो पनपने नहीं देता
धीरे-धीरे
केन्द्र बिन्दु ?
अधोमार्ग पर
गति कर रहा है
समय निकल रहा है।
</poem>
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