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|रचनाकार=कैलाश पण्डा
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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
प्रगति के बढ़ते चरण
राह में कंटक हैं
पादुकाएं उतार मत देना
बढ़ते चल
विकट-विराट् वीरान सा
भू-भाग
तूने ही संवारा है
मद में हो चूर
प्रकाश से दूर
भ्रमित मत हो जाना
कोमल कल्पनाओं को संवारना
अधखिली कलियों को
पुष्प बनने तक उबारना
कोमल सा बचपन अभी तेरा
रेशमी अहसास कर
तोड़ ले नाता
विनाशकारी यंत्रों से
मुख मोड़ ले कुत्सित यत्रों से
धरा को स्वर्ग बनाने का स्वप्र
अभी अधूरा है
प्रगति के बढ़ते चरण
राह में कंटक हैं।
</poem>
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