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16:04, 28 जून 2008 हर कोई चाहता है,
हो मेरा एक नन्हा आशियाँ
काम मेरे पास हो,
घर पर मेरे अधिकार हो,
पर, यही, मेरा और तेरा ,
क्योँ बन जाता, सरहदोँ मेँ बँटा,
शत्रुता का, कटु व्यवहार?
रोटी की भूख, इन्सानाँ को,
चलाती है,
रात दिन के फेर मेँ पर,
चक्रव्यूह कैसे , फँसाते हैँ ,
सबको, मृत्यु के पाश मेँ ?
लोभ, लालच, स्वार्थ वृत्त्ति,
अनहद,धन व मद का
नहीँ रहता कोई सँतुलन!
मँ ही सच , मेरा धर्म ही सच!
सारे धर्म, वे सारे, गलत हैँ !
क्योँ सोचता, ऐसा है आदमी ??
भूल कर, अपने से बडा सच!!
मनोमन्थन है अब अनिवार्य,
सत्य का सामना, करो नर,
उठो बन कर नई आग,
जागो, बुलाता तुम्हेँ, विहान,
है जो,आया अब समर का !