1,577 bytes added,
05:04, 25 फ़रवरी 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= मानोशी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
गीत फिर मैं लिख रही हूँ
दर्द का सागर दबाये,
जो लहू बहता नसों में
आँख से अब बह न जाये।
जो सुरों का स्रोत मेरा,
ज्योति बन कर जल रहा जो,
उंगलियो के पोर तक में
हर शिरा में पल रहा जो,
व्यर्थ क्यों आंसू बहाऊँ
जब बसा वह अंग मेरे,
गहन अंतर में छुपा है
चल रहा है संग मेरे,
जीव बन कर ना रहा पर
आत्मा मुझ में समाये।
लग रहा है प्राण मेरे
नोक पर जैसे टिके हैं,
जगत में उसके सिवा सब
स्वार्थ के हाथों बिके है,
हर इक पग पर याद तेरी
श्वास क्रम में बस रही है,
समय जैसे जा रहा है
डोर स्मृति की कस रही है,
किस तरह से धूप में शिशु
छांव बिन जीवन बिताये।
जो लहू बहता नसों में
आंख से अब बह न जाये।
</poem>