|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
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पहाड़
कैसा वलंद है पहाड़
एक चट्टान
जैसे खड़ी होती है आदमी के सामने
उसका रुख मोड़ती हुई
खड़ा है यह हवाओं के सामने
चोटी से देखता हूं
चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक
इसकी छाती पर
जो धीरे-धीरे शहरों को
ढो ले जाएंगे पहाड़
जहां वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे
बदल जाएंगे छतों में
धीरे-धीरे मिट जाएंगे पहाड़
तब शायद मंगल से लाएंगे हम उनकी तस्वीरें
या बृहस्पति, सूर्य से
बाघ-चीते थे
तो रक्षा करते थे पहाड़ों की, जंगलों की
आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है
अब पहाड़ों को तो चििड़याखानों में
रखा नहीं जा सकता
प्रजनन कराकर बढ़ाई नहीं जा सकती
इनकी तादाद
जब नहीं होंगे सच में
तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़
और भी खूबूसरत होते बादलों को छूते से
हो सकता है
वे काले से
नीले, सफ़ेद
या सुनहले हो जाएं
द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह
और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए
वे हो जाएं लुभावने
केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार मुकुल|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल}} एक कुत्ते की तरह चांद इस बखत ठंड भयानक हैऔर ठिठुरता हुआ मैं बैठा हूं कमरे मेंबाहर चांद एक कुत्ते की तरहमेरा इंतज़ार कर रहा होगाअभी मैं निकलूंगा और पीछे हो लेगा वहकभी भागेगा आगे-आगे बादलों मेंकभी अचानक किसी मोड़ पर रुककरलगेगा मूतनेऔर फिरभागता चला जाएगा आगे। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार मुकुल|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल}} चेहरा सूरज सिर पर होतो मैं नहीं समझताकि आदमी का चेहरा साफ दिखता हैआंखें चौंधियाती सी हैं चांदनी में चेहरा दिखता तो हैपर पढ़ा नहीं जाता गोधूलि और प्रात अच्छे हैंजब चेहरे खिलते और बोलते हैं पर तारों की रोशनी मेंतो रह ही नहीं जाता चेहरापूरी देह होती है चुप्पी में डोलतीअन्धे शायद सही समझते होंतारों भरी रात की भाषाजिसे वे बजाते हैं अक्सरऔर प्रेमी भीजो बचना चाहते हैं तेज रौशनी सेजिनके लिए आंख की चमक भर रौशनी हीकाफी होती है। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार मुकुल|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल}} चांद-तारे कांसे केदारनाथ सिंह के हसिए सा पहली का चांद जबपश्चिमी फलक पर भागता दिखता हैतब आकाश का जलता तारा चलता है राह दिखलातादूज को दोनों में पटती है और भीभाई-बहन से वे साथ चहकते हैंपर तीज-चौठ को बढ़ती जाती हैचांद की उधार की रौशनी और तारातेजी से दूर भागता सिमटता जाता है खुद मेंआकाश में और भी तारे हैंजो जलते नहीं टिमटिमाते हैंपर वे चांद को जरा नहीं लगाते हैंनिर्लज्ज चांदजब दिन मेंसूरज को दिया दिखलाता हैतारों को यह सब जरा नहीं भाता है।{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार मुकुल|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल}} महानगर सुबहें तो तुम्हारी भीवैसी ही गुंजान हैंचििड़यों से-कि किरणों सेव भीगी खुशबू से बस तुम ही हो इससे बेजारकुत्ते बाघ की मानिन्द सोते रहते हो तुम्हारे नाले विराट हैं कितने बलखाती विविधताओं से पछाड़ खातेऔर नदियों कोबना डाला है तुमनेतन्वंगीऔर तुम्हारी स्त्रियांकैसी रंगीन राख पोतेभस्म नजरों से देखतीगुजरती जाती हैं।तरह।