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एतदालम्बनँ श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।<br>एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ १७ ॥<br>
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न जायते म्रियते वा विपश्चिन्<br>नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।<br>अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो<br>न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ १८ ॥<br>
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::है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,<br>::यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।<br>::क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,<br>::आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥ [ १८ ]<br><br>
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हन्ता चेन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम् ।<br>उभौ तौ न विजानीतो नायँ हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥<br>
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अणोरणीयान्महतो महीया- <br>नात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।<br>तमक्रतुः पश्यति वीतशोको<br>धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ २० ॥<br>
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::जीवात्मा के, हृदय रूपी गुफा में, ईश्वर रहे,<br>::अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जो है, महिम से अतिशय महे।<br>::परब्रह्म की महिमा महिम, विरले को ही द्रष्टव्य है,<br>::द्रष्टव्य हो महिमा महिम की, और यही गंतव्य है॥ [ २० ]<br><br>
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आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः ।<br>कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति ॥ २१ ॥<br>
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अशरीरँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।<br>महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ २२ ॥<br>
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::यह क्षणिक है क्षयमाण क्षीण है, मरण धर्मा शरीर है,<br>::सब हर्ष शोक विकार मन के, मोह के प्राचीर हैं।<br>::अति धीर जन प्रज्ञा विवेकी, शोक न किंचित करें,<br>::सर्वज्ञ ब्रह्म को जान कर, वे मोह न सिंचित करें॥ [ २२ ]<br><br>
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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो<br>न मेधया न बहुना श्रुतेन ।<br>यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः<br>तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ॥ २३ ॥<br>
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नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।<br>नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ २४ ॥<br>
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::ये बुद्धि मन और इन्द्रियों, जिसके नहीं आधीन हैं,<br>::कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।<br>::है शांत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,<br>::नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥ [ २४ ]<br><br>
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यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः ।<br>मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥ २५ ॥<br>
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उस मृत्यु संहारक परम प्रभु को भला कैसे कोई,<br>
क्या जान पाये सृष्टि में उपजा नहीं, विरला कोई॥ [ २५ ]<br><br>
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इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये द्वितीया वल्ली ॥<br>
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