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16:18, 4 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
क्या-क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे।
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे।
लगता है मुझे क़ैद हो रोटी मेरे आगे।
आती है जहाँ राह में कोठी मेरे आगे।
डरती है कहीं वक़्त को क़ातिल न मैं लिख दूँ,
भागे है घड़ी और भी जल्दी मेरे आगे।
सब रंग दिखाने लगा जो साफ़ था पहले,
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे।
ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना,
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे।
सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है,
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे।
</poem>
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